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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
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ग़ज़ल
मोहब्बत ख़ून बन कर जिस्म में दौड़े तो क्या कहना
बस इतना कह दिया बाक़ी कलाम-ए-'मीर' पढ़ लेना
मोहम्मद आज़म
ग़ज़ल
दिल्ली का मर्सिया हो या दिल में वुफ़ूर-ए-ग़म
देखें कलाम-ए-'मीर' को क्या इस की शान है
अब्दुल क़ादिर अहक़र अज़ीजज़ि
ग़ज़ल
कलाम-ए-'मीर'-ओ-'मिर्ज़ा' क़ाबिल-ए-सद-नाज़ है 'अफ़्क़र'
मगर 'मोमिन' का अंदाज़-ए-बयाँ कुछ और कहता है
अफ़क़र मोहानी
मीरियात
ख़त्त-ओ-किताबत एक तरफ़ है दफ़्तर लिख लिख भेजे 'मीर'
कहिए कुछ जो सरीर-ए-क़लम की कोताही हो सिफ़ारत में
मीर तक़ी मीर
मीरियात
था वस्फ़ उन लबों का ज़बान-ए-क़लम पे 'मीर'
या मुँह में ‘अंदलीब के थे बर्ग-हा-ए-गुल
मीर तक़ी मीर
मीरियात
शायद कि सर-नविश्त में मरना है घुट के 'मीर'
काग़ज़ न महरम-ए-ग़म-ए-दिल नै क़लम शरीक
मीर तक़ी मीर
रेख़्ती
मीर मूसा मज़्हके का है अगर उस का कलाम
'जान' साहब शाइरों में ऊ-ही कैसा ख़ूब है
मीर यार अली जान
ग़ज़ल
अपने उस्ताद के अंदाज़ पे मेरा है कलाम
मुझ को 'नाज़िम' हवस-ए-पैरवी-ए-'मीर' नहीं